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Showing posts from May, 2020

"हम भी इंसान ही हैं माईबाप: मज़दूर उर्फ़ मज़बूर''

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●●● बीते कुछ दिनों से कोई न कोई मुझसे कहता है कि 'भाई! आजकल पॉलिटिकल व्यूज नहीं आ रहे आपके? पॉलिटिक्स से सन्यास ले लिए हैं क्या?      ऐसे मेरे मित्रों, सहचरों के साथ-साथ मज़हबी और सत्ताई ठेलुओं से मेरा कहना है कि पॉलिटिक्स पर विमर्श करना सबका लोकतांत्रिक अधिकार है। हमारी वजह से पॉलिटिक्स है न कि पॉलिटिक्स की वजह से हम। एक तरह से यह पॉलिटिक्स जनता का बच्चा है और बाप का अधिकार है कि बच्चे को दिए गए पैसों का हिसाब ले, उससे आवश्यक होने पर प्रश्न भी करे और सही-ग़लत पर चर्चा करे। फ़िलहाल, एक बात तो है कि अगर मेरे कहने भर से कुछेक को मिर्च लगती हैं तो कहीं न कहीं बात में दम तो होगा ही। रही बात पॉलिटिकल व्यूज की, तो इतना जानते हैं कि इस कोरोना काल में सरकारी हमदर्द कितनी भी मदद कर रहे हों, अधिकतर ज़रूरतमंद आज भी लाइनों में खड़ा मुँह ताकता मिलेगा या फिर रात दिन लाई-चना या बिस्कुट पानी खाकर पूरे परिवार के साथ सड़कों पर चलता मिलेगा। इन्हीं मज़दूरों में कइयों की रोड हादसे में मर जाने की ख़बर आती है, कइयों की अटैक से मर जाने की और वहीं कइयों के बच्चे भूखे-प्यासे मरे जा रहे हैं। बैठने-सोने की समुचित व्य

'मदर्स डे: स्त्री विमर्श'

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अभी कुछ देर पहले ही हम मदर्स डे मनाकर निच्चू हुए हैं। मतलब यह कि इस दुनिया में ईश्वर द्वारा बनाई गई सबसे नायाब, अच्छी और महान कृति का दिन। मनाना भी चाहिए, क्योंकि स्त्री रूप में आकर 'माँ' ने धरातल पर कई सजीव और भावनात्मक किरदारों को बख़ूबी निभाया है। माँ की ख़ूबसूरती में जितना कहा जाए, लिखा जाए, वह कम ही होगा। लेकिन मेरी नज़र में यह स्त्रियों के आपसी विमर्श का दिन भी होना चाहिए क्योंकि आज स्त्रियाँ अपनी ही कौम को भली-भाँति नहीं समझ पा रही हैं। एक ओर जहाँ दुनिया की हर माँ ने किसी की बहन, किसी की बेटी, किसी की सास, किसी की पत्नी के रूप में अपनी अहम भूमिका निभाते हुए इस जगती को सफल बनाया है। वहीं दूसरी ओर इन्हीं भूमिकाओं को निभाते हुए उसी माँ ने पारिवारिक आपसी अंतर्द्वंदों को को भी झेला है।         उदाहरणार्थ एक समस्या यह है कि पुरातनकाल से अधिकतर घरों में एक परिस्थिति आम तौर पर देखने को मिलती रही है वो यह कि जिस घर में सास माँ और बहू होती है, जिनमें एक दूसरे को सकारात्मक ऊर्जा देने का पक्ष तो होता ही है, साथ ही सबसे ज़्यादा नाराज़गी का नकारात्मक पक्ष भी होता है। इस नकारात्मक पक्ष की स

'औरंगाबाद ट्रेन हादसा'

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●●● औरंगाबाद की दुर्घटना ने दिल दहलाकर रख दिया है। अभी कल ही मैं मेडिकल से दवाई लेने गया था जिस दौरान मैंने पलायन किये हुए कम से कम 30-35 मज़दूरों की एक लंबी क़तार को अपने गंतव्य की ओर बढ़ते देखा। वहीं एक अकबरपुर डिपो की 21 नंबरी बस भी कई मज़दूरों को उनके घर ले जा रही थी। पैदल पलायन करने वाले मज़दूर जिस तरह से उस बस को देख रहे थे, ऐसा लग रहा था कि मानो कह रहे हों कि भैया, हमें भी बिठा ले चलो। इसी प्रकार कल एक ताज़ा वीडियो देखा जिसमें एक बहुत कम उम्र की माँ अपने एक-डेढ़ साल के बच्चे को अपनी कमर पर लादकर सूरत से चली थी और आधे से ज़्यादा रस्ता उसने केवल इसी आशा में पार कर लिया कि बच्चे को लेकर घर पहुँचेगी। बीते दिनों में समय का असहनीय प्रकोप इतना ज़्यादा रहा है कि पलायन किये हुए कई मज़दूरों के प्राण भूख-प्यास, थकान, चिंता और द्विविधा में निकल गए। अगर गिनने की नौबत आ जाए तो इनकी गिनती करना असंभव सा हो जाएगा। यह अत्यंत दुःखद है।           मज़दूरों की स्थिति में सरकार की ओर से होने वाले प्रयास सराहनीय हैं। लेकिन हमें एक बात समझनी होगी कि केवल दिल्ली, नोएडा, मुम्बई जैसे महानगरों से ही मज़दूरों का पलायन न