'मदर्स डे: स्त्री विमर्श'
अभी कुछ देर पहले ही हम मदर्स डे मनाकर निच्चू हुए हैं। मतलब यह कि इस दुनिया में ईश्वर द्वारा बनाई गई सबसे नायाब, अच्छी और महान कृति का दिन। मनाना भी चाहिए, क्योंकि स्त्री रूप में आकर 'माँ' ने धरातल पर कई सजीव और भावनात्मक किरदारों को बख़ूबी निभाया है। माँ की ख़ूबसूरती में जितना कहा जाए, लिखा जाए, वह कम ही होगा। लेकिन मेरी नज़र में यह स्त्रियों के आपसी विमर्श का दिन भी होना चाहिए क्योंकि आज स्त्रियाँ अपनी ही कौम को भली-भाँति नहीं समझ पा रही हैं। एक ओर जहाँ दुनिया की हर माँ ने किसी की बहन, किसी की बेटी, किसी की सास, किसी की पत्नी के रूप में अपनी अहम भूमिका निभाते हुए इस जगती को सफल बनाया है। वहीं दूसरी ओर इन्हीं भूमिकाओं को निभाते हुए उसी माँ ने पारिवारिक आपसी अंतर्द्वंदों को को भी झेला है।
उदाहरणार्थ एक समस्या यह है कि पुरातनकाल से अधिकतर घरों में एक परिस्थिति आम तौर पर देखने को मिलती रही है वो यह कि जिस घर में सास माँ और बहू होती है, जिनमें एक दूसरे को सकारात्मक ऊर्जा देने का पक्ष तो होता ही है, साथ ही सबसे ज़्यादा नाराज़गी का नकारात्मक पक्ष भी होता है। इस नकारात्मक पक्ष की सबसे बड़ी वजह यह होती है कि माँ के रूप में अधिकतर एक स्त्री दूसरी स्त्री को या तो समझ नहीं पाती या फिर समझने का प्रयास नहीं करती। दोनों के बीच रोज़ाना के क्लेश और झिक-झिक से गम्भीर मनमुटाव का उत्पन्न हो जाना एक संभावी रूप धारण कर चुका है जो कि वृहद चिंतन का विषय है। बहू; जो एक बेटी से माँ तक का सफर तय करती है, उसके अधिकतर सकारात्मक क्रियाकलापों से कई बार सास माँ खिन्न होती हुई दिखाई पड़ती हैं। कारण केवल इतना होता है कि विभिन्न अमुक कार्य उनके 'हिसाब' के नहीं किये गये होते हैं। और कई कार्य ऐसे भी होते हैं, जिन्हें बहू अपनी मनमर्ज़ी के मुताबिक़ करने की ज़िद में अपने से बड़ी सास माँ की बातों को नकारती हुई दिख जाती है। हालाँकि देखा जाए तो वह अमुक कार्य सास माँ की बताई प्रक्रिया द्वारा सामाजिक, पारिवारिक, शारीरिक एवं अन्य विभिन्न मानकों पर एकदम खरा होता है। परंतु बहू को लगता है कि यह उसके साथ हमेशा अपनी बात को मनवाने के लिए की गई ज़ोर-ज़बरदस्ती होती है, और बहू का किया सास माँ को कभी पसंद ही नहीं आता। इसी समय में सास माँ द्वारा 'अपने ज़माने' के गढ़े माइलस्टोन को बताने में भी पीछे हटते नहीं पाया जाता। जिसकी वजह से बहू को भी उतना न कर पाने की वजह से बुरा लगता है और अक्सर वह सास माँ को कोसती ही मिलती है। वहीं अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाने की वजह से बहू को सास माँ भी ठेलने से पीछे नहीं हटतीं।
इस समस्या में दोनों स्त्रियों के बीच सामंजस्य न बैठने का प्रमुख कारण 'जनरेशन गैप' का होना है जिसमें दोनों ही एक-दूसरे के ज़माने, उनके समय, उनकी ज़िंदगी के साथ जद्दोहज़द के तरीके को स्वयं से समझने का प्रयास नहीं करते हैं बल्कि जानबूझकर उन अमुक परिस्थितियों को एक-दूसरे के मुँह पर बोल-बोल कर जताना शुरू कर देते हैं। जिसके खामियाज़े के रूप में दोनों के ज़ेहन में कुंठा घर कर लेती है और ऐसे ही धीमे-धीमे यह मामला बाद में गंभीर गृह क्लेश तक पहुँच जाता है। अब ऐसा नहीं है कि यहाँ पर केवल यही दो लोग मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित होते हैं। बल्कि यहाँ पर घर में मौज़ूद अन्य लोग भी प्रभावित होते हैं जिनमें बच्चों पर इसका सबसे ज़्यादा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। तो जाने-अनजाने उत्पन्न हुई इन सारी नकारात्मक परिस्थितियों को आपसी सामंजस्य और एक-दूसरे के सही विचारों के प्रति समर्थन से ख़त्म किया जा सकता है। एक-दूसरे को उनकी पीढ़ी में जाकर सारी परिस्थितियों को समझना ही इस समस्या को ख़त्म करने की औषधि है। साथ ही एक और बड़ी बात जो अक्सर ऐसे में स्त्रियों को आसानी से पसंद नहीं आती, वो है अपनी आलोचना। किसी भी व्यक्ति की आलोचना केवल इतना प्रदर्शित करती है कि व्यक्तित्व में या फिर कृतित्व में कहीं न कहीं, कोई न कोई कमी तो रह गयी है। हो सकता है कि आलोचना पूरी तरह से सही न हो पर अधिकतर सही होती है। और मेरा कहना यह है कि चाहे स्त्री हो या पुरुष, जिस दिन अपनी आलोचना स्वीकार करने के बाद उसे अपनी ग़लतियों पर काम करना आ जाएगा, उस दिन उसमें सुधार होगा और एक चमचमाता व्यक्तित्व भी निखर कर आएगा। आज दौर-ए-हाज़िर के पारिवारिक मसअलों को देखते हुए स्त्री-विमर्श के इस पक्ष पर चर्चा करना भी बहुत आवश्यक था क्योंकि चाहे बहू हो या सास, होती तो आख़िर दोनों माँ ही हैं और दोनों ही एक बच्चे को न कि जन्म देती हैं, बल्कि उसके भविष्य को बनाने में अहम योगदान भी देती हैं।
-खेरवार
बहुत अच्छे तरह से समझाया आपने
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई
शुक्रिया भ्राते! 😊💐❤️
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