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Showing posts from April, 2020

"फ़िल्म: पर्दे तक सीमित एक कहानी"

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●●● फिल्मों में जो अति-काल्पनिक दिखावे का आजकल चलन चला है उसकी फ्रीक्वेंसी हमारे दर्शक 'मनोरंजन' नामक डिवाइस के ज़रिए कितनी आसानी से कैच करते हुए मिल जाते हैं। वैसे एक बात तो है, फ़िल्मों में किसी विलन का क़िरदार माशाल्लाह! बहुत कमाल होता है। आज सुबह ही अमिताभ की फ़िल्म 'शहंशाह' देख रहा था। फाइटिंग के एक सीन में इस फ़ौलादी हीरो को पीटने अथाह गुंडे आ जाते हैं। कुछ एकदम मुश्टण्डे, कुछ काले-कूबरे, कुछ सूखे-पाखे, कुछ कद्दू सा पेट लिए, कुछ पिचके मुँह के और कुछ उजड़े चमन एकदम कडुआ तेल लगाकर चिकनी खोपड़ी लेकर आये। सूरज की किरणों से चमकते ये टकले समाज भर में निकम्मेपन का 'फॉक्स' मारते फिरते हैं। लेकिन उस समय ऐसा लग रहा था मानो ये सब किसी की बारात में नाचने के लिए भाड़े पर मँगवाये गए हों। हक़ीक़त में इन्हें ख़ुद पता नहीं होता कि थोड़ी देर में ये ही घोड़ी चढ़ाये जाएँगे। ऐसे में एक हमारा हीरो होता है, जो लाइट, कैमरा, एक्शन के तुरंत बाद ढेर सारे गुस्से और ताव में चिल्लाता है। जिसके चिल्लाने भर से गुंडों की पतलून गीली हो जाती है और जिस पर गुंडों की मार-कुटाई का कोई असर नहीं होता। उल्टा

"विश्व पुस्तक दिवस"

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●●● यह लॉकडाउन बड़ा ही विचित्र है। हमारे रिरियाने-घिघियाने और दीवारों को दिखा-दिखाकर विभिन्न एंगल का मुँह बनाने के दौर में स्टील की रैक या सीमेन्टेड अलमारी में रखी किताबों का आपसी विचार-विमर्श हमारी भूतिया हरक़तों को लेकर बीते उनतीस दिनों में ज़रूर हुआ होगा। दुनिया इस समय घनघोर चुप्पी साधने पर लगी है। बहुत कम हरक़त, चुप्पी ज़्यादा। अलबत्ता इसे लग रहा होगा कि ज़रूर कोई तालिबानी हमला हुआ है। और ऐसे समय में इंसान अपनी बड़ी कोठी, फ्लैट, चॉल के कमरे या झोपड़ी में साइलेंट रहते हुए दीवार घड़ी की वायलेंट  धड़कन को सुन रहे हैं, जिसे लॉकडाउन के दिनों से पहले शायद कभी सुना नहीं गया या फिर 'नेगलेक्ट' कर दिया।          ख़ैर, विश्व पुस्तक दिवस आते-आते इन किताबों को भी देश में लगी किसी इमरजेंसी का पता चल ही गया होगा। पता चले भी क्यों न भाई! जिन किताबों के सफ़ेद सिर को केवल मकड़ी, जाला और धूल ही सहलाते थे, उसे नए पाठकों ने भी सहलाना शुरू कर दिया है। क़िताबों को भी सब पता है कि यह साथ कब तक गहरायेगा। कई जगह कुछ दिनों के लिए उन्हें एक बेशक़ीमती फोन की तस्वीर में उतारे जाने के लिए उनकी भी डेंटिंग-पेंटिंग

हम इंसान हैं?

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●●● क्या हम वही 'इंसान' हैं जो बात-बात में एक सच छिपाने के लिए अपने झूठ का ठीकरा दूसरों पर फोड़ देते हैं। मंथन करने योग्य सामाजिक बात को अपने दिमागी चिंतन की तंग गलियों में रोज़ घुमाने ले जाते हैं। सोचते हैं कि हम इस बात को नई स्फूर्ति प्रदान करेंगे जिससे यह दूसरों के तंग दिमाग़ी गलियारों में घुसकर उनमें सैनीटाइज़िंग अभियान चलाएगी जिससे देश को उन्नति का अवसर मिलेगा। पर असल में हमें ही नहीं पता कि हमारी गाड़ी जा कहाँ रही है, देश को दिशा देने की बात तो ऐसे में फिर मंगल पर जाने जैसी बात हो गयी। हम ही हैं, जो किसी की पोस्ट पर फेसबुक के पाँच इमोजी में से एक 'सैड' वाले इमोजी के ज़रिए झूठे वैमनस्य का चोला ओढ़ते हैं। हम ही हैं, जो अगले ही क्षण किसी की पोस्ट पर सुर्ख़ लाल 'दिल' दर्ज़ कराते हुए मिल जाते हैं। मानवता शर्मसार करने वाले वीडियो पर तथाकथित 'एंग्री' दबाकर मन के भीतर से हुमकती माँ-बहन की चार गालियाँ देते हैं, एक कमेंट चेपते हैं और अगले ही क्षण हम किसी की मोहब्बत का अफ़साना या फिर महँगे आधुनिक कैमरे से खिंचे फोटो के साथ चस्पा किसी का यात्रा वृत्तांत पढ़कर रोमांचित

"प्रतियोगिता"

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●●● 'प्रतियोगिता।' देखने-सुनने में यह महज़ एक शब्द भर है। पर स्वयं देखिए न, कितना भारी-भरकम व्यक्तित्व और कृतित्व है इस शब्द का। कितनी ज़्यादा ज़िम्मेदारियाँ हैं इसके कंधे पर। प्रतियोगिता, जिसमें एक अधमरे साँप का फ़ुर्तीदार नेवले से लड़ना यह साबित करता है कि देख, अभी मैं मरा नहीं। और नेवले का साँप से लड़कर यह साबित करना कि बेटे! आख़िरी साँस तक हार तो मैं भी मानने वाला नहीं। प्रतियोगिता, जिसमें एक कछुआ अपने बल व फुर्ती से हारा हुआ होने के बावज़ूद लगातार चलने की बदौलत रेस में अहंकारी खरगोश से आगे निकलकर जीत जाता है।           दरअसल प्रतियोगिता उस स्त्री समान है जो आपको अवचेतन से सचेतन दिशा की ओर इंगित करने के लिए हुंकार भरती है। जब आप ख़ुद को असफलताओं के बाद कोसने लगते हैं, जब आप ख़ुद को हारा हुआ मानने लगते हैं, तब यही प्रतियोगिता आपके सामने आकर कहती है कि 'यूँ रोने-बिलबिलाने से कुछ नहीं होगा और न ही ख़ुद पर दोषारोपण करने से। अगर तुम्हें लगता है कि तुम किसी लक्ष्य के सच्चे हक़दार हो, तो जाओ और ख़ुद को साबित करो।' अब इस प्रतियोगिता के दो तरह के रिजल्ट आउट होते हैं। एक यह कि या तो आप