"फ़िल्म: पर्दे तक सीमित एक कहानी"
●●● फिल्मों में जो अति-काल्पनिक दिखावे का आजकल चलन चला है उसकी फ्रीक्वेंसी हमारे दर्शक 'मनोरंजन' नामक डिवाइस के ज़रिए कितनी आसानी से कैच करते हुए मिल जाते हैं। वैसे एक बात तो है, फ़िल्मों में किसी विलन का क़िरदार माशाल्लाह! बहुत कमाल होता है। आज सुबह ही अमिताभ की फ़िल्म 'शहंशाह' देख रहा था। फाइटिंग के एक सीन में इस फ़ौलादी हीरो को पीटने अथाह गुंडे आ जाते हैं। कुछ एकदम मुश्टण्डे, कुछ काले-कूबरे, कुछ सूखे-पाखे, कुछ कद्दू सा पेट लिए, कुछ पिचके मुँह के और कुछ उजड़े चमन एकदम कडुआ तेल लगाकर चिकनी खोपड़ी लेकर आये। सूरज की किरणों से चमकते ये टकले समाज भर में निकम्मेपन का 'फॉक्स' मारते फिरते हैं। लेकिन उस समय ऐसा लग रहा था मानो ये सब किसी की बारात में नाचने के लिए भाड़े पर मँगवाये गए हों। हक़ीक़त में इन्हें ख़ुद पता नहीं होता कि थोड़ी देर में ये ही घोड़ी चढ़ाये जाएँगे। ऐसे में एक हमारा हीरो होता है, जो लाइट, कैमरा, एक्शन के तुरंत बाद ढेर सारे गुस्से और ताव में चिल्लाता है। जिसके चिल्लाने भर से गुंडों की पतलून गीली हो जाती है और जिस पर गुंडों की मार-कुटाई का कोई असर नहीं होता। उल्टा