'औरंगाबाद ट्रेन हादसा'

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औरंगाबाद की दुर्घटना ने दिल दहलाकर रख दिया है। अभी कल ही मैं मेडिकल से दवाई लेने गया था जिस दौरान मैंने पलायन किये हुए कम से कम 30-35 मज़दूरों की एक लंबी क़तार को अपने गंतव्य की ओर बढ़ते देखा। वहीं एक अकबरपुर डिपो की 21 नंबरी बस भी कई मज़दूरों को उनके घर ले जा रही थी। पैदल पलायन करने वाले मज़दूर जिस तरह से उस बस को देख रहे थे, ऐसा लग रहा था कि मानो कह रहे हों कि भैया, हमें भी बिठा ले चलो। इसी प्रकार कल एक ताज़ा वीडियो देखा जिसमें एक बहुत कम उम्र की माँ अपने एक-डेढ़ साल के बच्चे को अपनी कमर पर लादकर सूरत से चली थी और आधे से ज़्यादा रस्ता उसने केवल इसी आशा में पार कर लिया कि बच्चे को लेकर घर पहुँचेगी। बीते दिनों में समय का असहनीय प्रकोप इतना ज़्यादा रहा है कि पलायन किये हुए कई मज़दूरों के प्राण भूख-प्यास, थकान, चिंता और द्विविधा में निकल गए। अगर गिनने की नौबत आ जाए तो इनकी गिनती करना असंभव सा हो जाएगा। यह अत्यंत दुःखद है। 
         मज़दूरों की स्थिति में सरकार की ओर से होने वाले प्रयास सराहनीय हैं। लेकिन हमें एक बात समझनी होगी कि केवल दिल्ली, नोएडा, मुम्बई जैसे महानगरों से ही मज़दूरों का पलायन नहीं हुआ, अपितु पूरे देश के छोटे-बड़े नगरों से हुआ है। और पलायन किये हुए मज़दूरों की संख्या कई लाखों में है जिसे सरकारी तंत्र और महल-दुमहले में बैठकर गिनती करने वाले लोग नहीं गिन सकते। रेलवे ट्रैक पर पड़ी हुई रोटियाँ भूख, मज़दूरों की थकान, घर पहुँचने की आस को प्रदर्शित करते हुए हम सभी से संवाद करने का प्रयास करती हैं। यही वह समय है जिसमें इलीट और मिडिल क्लास के तबके से जो लोग फ़ेसबुकिया प्लेटफॉर्म पर बैठकर मज़दूरों पर रेलवे ट्रैक जैसी सशंकित और दुर्घटनाग्रस्त जगह पर सो जाने का आरोप लगाकर उन्हें ठेलने का प्रयास कर रहे हैं न, उनसे अगर दस किलोमीटर भी पैदल चलने को कह दिया जाए तो खीसें निपोर कर बाजू होने के अलावा कोई चारा नहीं होगा इनके पास। यहाँ लगभग 40 किलोमीटर पैदल चला था आदमी। अब ऐसे में थकान होगी तो हाथ-पैर भी टूटेंगे, नींद भी आएगी और आपकी सोचने-समझने की क्षमता पर भी प्रभाव पड़ेगा। जिस दौरान इन मज़दूरों को घर जाने के लिए वाहन नहीं मिला, वो मैदानी भाग और मख़मली गद्दे की व्यवस्था करने में जुट जाते क्या? इतना तो हम भी जानते हैं कि थकान में बैठते और लेटते ही नींद आने लग जाती है। यह आमतौर पर थकान से होने वाला साइकोलॉजिकल इफ़ेक्ट है। शायद इन मज़दूरों के साथ भी यही हुआ होगा। 
         अब कई तथाकथित प्रबुद्ध लोग हैं जो इस वीभत्स काल में मज़दूरों की बुद्धिमानी और मूर्खता पर प्रश्न उठा रहे हैं, उनसे मेरा पुनः निवेदन के साथ यही कहना है कि मित्रो! विपदा में सिर्फ़ अपना घर ही दिखता है। भले ही मज़दूरों का आई.क्यू. तथाकथित पढ़े-लिखों जितना नहीं होता पर लॉकडाउन में 45 दिन से भी ज़्यादा समय से आर्थिक, मानसिक, और शारीरिक रूप से घुट रहे इन मज़दूरों को अपना घर ही सबसे ज़्यादा उचित और उत्तम विकल्प दिखाई देता है। उदाहरण स्वरूप कोटा में फँसे स्टूडेंट्स, दिल्ली के गर्ल्स हॉस्टल में फँसी एक अकेली छात्रा को ही देख लीजिये, इन्हें भी लॉकडाउन में अपना घर ही दिखा था। ठीक उसी प्रकार जब एक मज़दूर को ढंग का खाना न मिल पा रहा हो, उसका परिवार भूखा सो जा रहा हो, पानी की किल्लत हो, ऐसे में उसके लिए अपना घर ही महफूज़ स्थान होता है। यह सब मज़दूर हालात के मारे हुए हैं और न जाने हालात कब सुधरेंगे। विभिन्न राज्यों की सरकारें 132 करोड़ लोगों के लिए प्रतिबद्ध तो हैं पर कितने तन-मन-धन से हैं, इसका सही अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता है। एक बात शत-प्रतिशत प्रमाणित हो चुकी है कि यदि सरकारें अपने निजी स्वार्थ को दरकिनार कर एक-दूसरे का हाथ थाम उचित समय पर उचित निर्णय ले सकने में सक्षम होतीं तो कम से कम हमारे मज़दूर पलायन काल के दौरान मृत्यु के भोगी नहीं होते, ख़ासतौर पर आज इनकी देह ट्रेन की पटरियों पर कटी हुई न मिलती और न ही उनकी बिखरी हुई ख़ूनी रोटियाँ हमें किसी तस्वीर में दिखाई देतीं।

                             -खेरवार

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