हम इंसान हैं?

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क्या हम वही 'इंसान' हैं जो बात-बात में एक सच छिपाने के लिए अपने झूठ का ठीकरा दूसरों पर फोड़ देते हैं। मंथन करने योग्य सामाजिक बात को अपने दिमागी चिंतन की तंग गलियों में रोज़ घुमाने ले जाते हैं। सोचते हैं कि हम इस बात को नई स्फूर्ति प्रदान करेंगे जिससे यह दूसरों के तंग दिमाग़ी गलियारों में घुसकर उनमें सैनीटाइज़िंग अभियान चलाएगी जिससे देश को उन्नति का अवसर मिलेगा। पर असल में हमें ही नहीं पता कि हमारी गाड़ी जा कहाँ रही है, देश को दिशा देने की बात तो ऐसे में फिर मंगल पर जाने जैसी बात हो गयी। हम ही हैं, जो किसी की पोस्ट पर फेसबुक के पाँच इमोजी में से एक 'सैड' वाले इमोजी के ज़रिए झूठे वैमनस्य का चोला ओढ़ते हैं। हम ही हैं, जो अगले ही क्षण किसी की पोस्ट पर सुर्ख़ लाल 'दिल' दर्ज़ कराते हुए मिल जाते हैं। मानवता शर्मसार करने वाले वीडियो पर तथाकथित 'एंग्री' दबाकर मन के भीतर से हुमकती माँ-बहन की चार गालियाँ देते हैं, एक कमेंट चेपते हैं और अगले ही क्षण हम किसी की मोहब्बत का अफ़साना या फिर महँगे आधुनिक कैमरे से खिंचे फोटो के साथ चस्पा किसी का यात्रा वृत्तांत पढ़कर रोमांचित हो रहे होते हैं। अब ऐसे में मानव मन के तीन प्राणी भावना, संवेदना और चिंतन आपस में इतने कंफ्यूज हो जाते हैं कि पूरी में से आधी बात खा जाते हैं, बाकी बची में से थोड़ी सामने उपस्थित इंसान के मन को चने के झाड़ पर चढ़ाकर, थोड़ा जड़ों की दुहाई देते हुए अपनी बात पूरी कर देते हैं। अब इंसानी दिल और दिमाग़ क्या करें, शार्ट सर्किट और भाजीपाले का दंश झेलते हुए इनकी भी थूथरी मोथरी हो जाती है तो शरीर के हर हिस्से से वही  निकलता है, जो सामने वाला निकलवाना चाहता है। वैसे भी आभासी दुनिया के टट्टुओं को उल्लू बनाना तो बाएँ हाथ का खेल हो गया है आजकल। हम दूसरे की कही को सौ प्रतिशत सही मानकर सोशल मीडिया पर मीम-मीम खेलने वाले चिंतन के नील गगन में उड़ने वाली सच्चाई की चिड़िया का जब रंग भी नहीं बता सकते, तो ऐसे में उसके पंख गिनना तो फिर असंभव है ही।

       हाँ, हम वही 'इंसान' हैं, जो; अपनी बीबी में बारह या फिर तीन सौ पंद्रह बोर के देसी कट्टे से गोली दाग़ देने वाले का वीडियो बनाकर व्हाट्सएप्प पर वायरल कर देते हैं और उसे एकदम साउथ के हीरो वाली फीलिंग दिला देते हैं जो हक़ीक़त में विलेन ही होता है। ऐसे ही बुज़ुर्गों पर लाठी मारने वालों को लीड हीरो का किरदार सौंपने के बाद 'एक्ट-२ पॉपकॉर्न' की पुड़िया भूँजकर मस्ती से खाते हुए गलियारे की फट्टा टॉकीज में उनके एक्शन सीन का लाइव वीडियो रिकॉर्ड कर घर लाते हैं और फिर अपने परिवार को दिखाते हैं, सगे संबंधियों को भेजते हैं, कलीग को भेजते हैं और भी न जाने कितनों को। पर हम ये नहीं सोचते कि रील लाइफ और रियल लाइफ के दो-ढाई घंटे की पिक्चर का हासिल केवल इतना है कि रील लाइफ करोड़ों में अपना उल्लू सीधा कर ले जाती है और रियल लाइफ हमसे हाथ जोड़कर निवेदन करती है कि मुझे जाने दो, मुझे बचा लो। पर हम ठहरे प्रकांड विद्वान! जो अपने प्रतिउत्तर में कहते हैं कि 'थोड़ा रुको, बस फ़िल्म ख़त्म होने वाली ही है।' फ़िल्म ख़त्म होने के बाद जब लाइट जलती है तो दृश्य बिल्कुल बदला हुआ होता है। इंसानियत का गला हम घोंट चुके होते हैं, किसी इंसान की लाश हमारे सामने पड़ी होती है। जिसके बावज़ूद हम फिर किसी पोस्ट पर झूठे वैमनस्य का चोला ओढ़ते हुए मिल जाते हैं। पर हमें इस पूरे क्रियाकलाप से मिला भी तो आख़िर क्या? निल बट्टे सन्नाटा। याद रहे, पर्दा गिरने के बाद स्टेज पर वीराना ही मिलता है, जो असल वैमनस्य होता है।

                     ●'खेरवार'

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