"प्रतियोगिता"
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'प्रतियोगिता।' देखने-सुनने में यह महज़ एक शब्द भर है। पर स्वयं देखिए न, कितना भारी-भरकम व्यक्तित्व और कृतित्व है इस शब्द का। कितनी ज़्यादा ज़िम्मेदारियाँ हैं इसके कंधे पर। प्रतियोगिता, जिसमें एक अधमरे साँप का फ़ुर्तीदार नेवले से लड़ना यह साबित करता है कि देख, अभी मैं मरा नहीं। और नेवले का साँप से लड़कर यह साबित करना कि बेटे! आख़िरी साँस तक हार तो मैं भी मानने वाला नहीं। प्रतियोगिता, जिसमें एक कछुआ अपने बल व फुर्ती से हारा हुआ होने के बावज़ूद लगातार चलने की बदौलत रेस में अहंकारी खरगोश से आगे निकलकर जीत जाता है।
दरअसल प्रतियोगिता उस स्त्री समान है जो आपको अवचेतन से सचेतन दिशा की ओर इंगित करने के लिए हुंकार भरती है। जब आप ख़ुद को असफलताओं के बाद कोसने लगते हैं, जब आप ख़ुद को हारा हुआ मानने लगते हैं, तब यही प्रतियोगिता आपके सामने आकर कहती है कि 'यूँ रोने-बिलबिलाने से कुछ नहीं होगा और न ही ख़ुद पर दोषारोपण करने से। अगर तुम्हें लगता है कि तुम किसी लक्ष्य के सच्चे हक़दार हो, तो जाओ और ख़ुद को साबित करो।' अब इस प्रतियोगिता के दो तरह के रिजल्ट आउट होते हैं। एक यह कि या तो आप विजेता होंगे और दूसरा यह कि आप विजेता नहीं होंगे। उसी समय यह प्रतियोगिता आशा और निराशा को अपनी दोनों मुट्ठियों में अलग-अलग लेकर खड़ी होती है। चुनना हमें होता है। हम आशा को चुनकर एक बुर्ज ख़लीफ़ा जैसी इबारत रच सकते हैं, और निराशा से अपनी हार का ठीकरा किसी पर भी पर फोड़ सकते हैं। वैसे, प्रतियोगिता हमें मार्ग प्रशस्त करती है, एकदम गुरुश्रेष्ठ की तरह। अब उस मार्ग पर भले ही हम दस बार लड़खड़ायें, पर हमारे अंदर उन दस लड़खड़ाहटों के बाद चुनौतियों से लड़ने के लिए जिस सकारात्मक ऊर्जा का प्रसार होगा, वो ज़िन्दगी भर हमें विजेता न होने के बावज़ूद असफलता से लड़ने का मूल मंत्र दे जाएगी।
मेरा मानना तो यह है कि प्रतियोगिता होती रहनी चाहिए। ख़ुद के दिमाग़ की पतली-पतली लंबी खपच्ची जैसी नाड़ियों में लगी दीमक पर प्राइमर लगाने जैसा ही कुछ होता है इस 'प्रतियोगिता' में। यही 'प्रतियोगिता' हमें हमारे ज़िंदा रहने का सबूत देती है, बचपन की यादों के उस स्कूल में ले जाती हैं जहाँ पेपर देते वक्त आजू-बाजू वाले से होड़ करते हुए हमारे हाथ की स्पीड केवल इसलिए बढ़ जाया करती थी कि कहीं पेपर न छूट जाए। पेपर पूरा होने के बाद का जो सुकून होता है, वह देती है प्रतियोगिता। प्रतियोगिता मानक है ख़ुद पर विश्वास का, उस विश्वास के नाम किए गए प्रयास का, हमें एक बेहतरी की ओर ले जाने वाले हाईवे का। रही बात मेरे मन की तो मेरा मन हमेशा से ही प्रतियोगी बना रहना चाहता है। ठीक वैसा, जैसे किसी घर की दीवार पर मनीप्लांट की बेल।
-खेरवार ❤️
'प्रतियोगिता।' देखने-सुनने में यह महज़ एक शब्द भर है। पर स्वयं देखिए न, कितना भारी-भरकम व्यक्तित्व और कृतित्व है इस शब्द का। कितनी ज़्यादा ज़िम्मेदारियाँ हैं इसके कंधे पर। प्रतियोगिता, जिसमें एक अधमरे साँप का फ़ुर्तीदार नेवले से लड़ना यह साबित करता है कि देख, अभी मैं मरा नहीं। और नेवले का साँप से लड़कर यह साबित करना कि बेटे! आख़िरी साँस तक हार तो मैं भी मानने वाला नहीं। प्रतियोगिता, जिसमें एक कछुआ अपने बल व फुर्ती से हारा हुआ होने के बावज़ूद लगातार चलने की बदौलत रेस में अहंकारी खरगोश से आगे निकलकर जीत जाता है।
दरअसल प्रतियोगिता उस स्त्री समान है जो आपको अवचेतन से सचेतन दिशा की ओर इंगित करने के लिए हुंकार भरती है। जब आप ख़ुद को असफलताओं के बाद कोसने लगते हैं, जब आप ख़ुद को हारा हुआ मानने लगते हैं, तब यही प्रतियोगिता आपके सामने आकर कहती है कि 'यूँ रोने-बिलबिलाने से कुछ नहीं होगा और न ही ख़ुद पर दोषारोपण करने से। अगर तुम्हें लगता है कि तुम किसी लक्ष्य के सच्चे हक़दार हो, तो जाओ और ख़ुद को साबित करो।' अब इस प्रतियोगिता के दो तरह के रिजल्ट आउट होते हैं। एक यह कि या तो आप विजेता होंगे और दूसरा यह कि आप विजेता नहीं होंगे। उसी समय यह प्रतियोगिता आशा और निराशा को अपनी दोनों मुट्ठियों में अलग-अलग लेकर खड़ी होती है। चुनना हमें होता है। हम आशा को चुनकर एक बुर्ज ख़लीफ़ा जैसी इबारत रच सकते हैं, और निराशा से अपनी हार का ठीकरा किसी पर भी पर फोड़ सकते हैं। वैसे, प्रतियोगिता हमें मार्ग प्रशस्त करती है, एकदम गुरुश्रेष्ठ की तरह। अब उस मार्ग पर भले ही हम दस बार लड़खड़ायें, पर हमारे अंदर उन दस लड़खड़ाहटों के बाद चुनौतियों से लड़ने के लिए जिस सकारात्मक ऊर्जा का प्रसार होगा, वो ज़िन्दगी भर हमें विजेता न होने के बावज़ूद असफलता से लड़ने का मूल मंत्र दे जाएगी।
मेरा मानना तो यह है कि प्रतियोगिता होती रहनी चाहिए। ख़ुद के दिमाग़ की पतली-पतली लंबी खपच्ची जैसी नाड़ियों में लगी दीमक पर प्राइमर लगाने जैसा ही कुछ होता है इस 'प्रतियोगिता' में। यही 'प्रतियोगिता' हमें हमारे ज़िंदा रहने का सबूत देती है, बचपन की यादों के उस स्कूल में ले जाती हैं जहाँ पेपर देते वक्त आजू-बाजू वाले से होड़ करते हुए हमारे हाथ की स्पीड केवल इसलिए बढ़ जाया करती थी कि कहीं पेपर न छूट जाए। पेपर पूरा होने के बाद का जो सुकून होता है, वह देती है प्रतियोगिता। प्रतियोगिता मानक है ख़ुद पर विश्वास का, उस विश्वास के नाम किए गए प्रयास का, हमें एक बेहतरी की ओर ले जाने वाले हाईवे का। रही बात मेरे मन की तो मेरा मन हमेशा से ही प्रतियोगी बना रहना चाहता है। ठीक वैसा, जैसे किसी घर की दीवार पर मनीप्लांट की बेल।
-खेरवार ❤️
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